साहित्य-शायरी

एक सानिहा था, मां की दुआओं से टल गया…

 

आंखों में एक ख़्वाब था वो भी पिघल गया,

तुम क्या गए के शहर का मौसम बदल गया।

 

जलता रहा हवाओं के आगे मेरा चराग़,

एक सानिहा था, मां की दुआओं से टल गया।

 

क्या ज़ब्त-ए-ग़म की आग है मुझमें लगी हुई,

मेरे क़रीब से जो गया वो भी जेल गया।

 

चुप चाप थे तो कोई हमें पूछता ना था,

आंधी का ज़ोर देख के दरिया संभल गया।

 

अब सोचने के वास्ते कुछ भी नहीं रहा,

उसका ख़्याल जो मेरे दिल से निकल गया।

 

हम अपनी बात कह ना सके ए क़मर सुरूर,

जो माजरा था दर्द क अश्कों में ढल गया।

 

डॉक्टर क़मर सुरूर

अहमद नगर महा राष्ट्र

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